ताज़

तक़ाज़ा शफ़्फ़ाक़ का नूर-ए-ताज़ से 
इक जरिया बज़्म-ए-शाही ज़माल से 

उसको देखूँ तो लिखने लगता हूँ ग़ज़ल 
जैसे निकला हो चाँद अभी घटाओं से 

वो देखे ज़ब यूँ पर्दा-ए-नशीँ से कँवल 
कैसे बचें हम अब उसकी इन अदाओं से 

रहबर 

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