दर्द ने मीर तक़ी मीर बना रखा है
बेवजह उसने हकीम बना रखा है
मैं अपने निशां गढ़ता जा रहा हूँ
नए दौर का इक सलीम बना रखा है
मैं कब से खुद को ढूंढता रहा हूँ
आईने से खुद को करीब बना रखा है
लाख कोशिसे की मैंने उससे बचने की
इक उसने खुद को परवीन बना रखा है
हो गए वो दूर हमसे, अब नहीं कहते उसे
हर शख्स के हाथों अब जमीर बना रखा है
रहबर
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