कच्ची उम्र की मोहब्बत
ये कच्ची उम्र की मोहब्बत, बेढंग, बेरूप और
दर-ओ-बदर, बे-पनाह मोहब्बत नहीं है अब और
इक किस्सा जोड़ने का हुनर तुम रखते हो जीस्त में
फिर उसी लहजे से ड़गर से गुजरेगा अब कोई और
तुम तो अब कंही के नहीं रहे, बर्बाद हो गए 'आशिक़'
फिर कच्ची उम्र में वही राग गाता है अब कोई और
अब कितना समझाऊं मैं खुद को 'रहबर'
नए ख़ून को देखता हूँ तो याद आता है अब कोई और
हम तो बेवजह ही बदनाम रहते थे अपनी महफ़िल में
इन किस्सों को सुनाता हूँ, तो कहते है, है अब कोई और
गौतम रहबर
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