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गम-ए-मोहब्बत 

यूँ ना बे-हिसाब तुम चाहो मुझे
फिर यूँ ना छोड़ कर जाओ मुझे

हम तो तिरे इश्क़ के कायल है
अब तुम इतना भी ना चाहो मुझे

ये महिना बड़ा पाक है बचो इससे
इश्क़ से नहीं फरेब से अब चाहो मुझे

मैं तो क़त्ल कर आई हूँ जज्बातों का
भरी आँखों से देखा क़ातिल ने चाहो मुझे

वो महिना अब चला गया जो हमारा था
इश्क़ हो गया अब गम-ए-मोहब्बत से मुझे 

रहबर 

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